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परदेशी

narayani
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परदेशी

एक बचपन था प्यारा प्यारा
एक घर था न्यारा न्यारा
बाग बगीचे के फूलो से, हम इठलाते इतराते
जेसे फूलो की खुशबु से, वन उपवन महकता है
वेसे ही नटखट बालपन घर आंगन महकाता था
बाग में हैं कितने फूल कितनी कलियाँ
माली ने कभी गिनी नहीं
संतानों की गिनती माता पिता से सुनी नहीं
एक एक पौधा बड़ा हुआ,
एक एक ने घर को छोड़ा है
हम जल्दी आयेंगे और जल्दी तुम्हें बुलाएँगे
हर बार यही एक वादा है
हर बार उसे भी तोडा है
आँखे रोती है उनकी और नम होकर यह कहती है
हमने उम्र जी ली अपनी,
बाकि उम्र तुम्हें लग जाये
दूर रहे तुमसे सदा बुरा वक्त और बुरी बलाएँ
इस परदेशी पूंजी से क्या कभी बरसी ऐसी बरखा
जिसमे कभी एक बूंद भी प्रेम की हो, कही सुना निरखा ?
अब तो लौट चलो परिंदों, परदेश में रीती नही
मात पिता बांधव भुला दे, मेरे देश की नीति नही.

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